संपादकीय –
गैंगेस्टर विकास दुबे की कहानी आज खत्म हुई। इसी के साथ अंत हो गया जुर्म की राह में चलने वाले एक और गैंगेस्टर ।
लेकिन सवाल यह है कि राजनीति के सह में पनपने वाले इन दरिदों का अंत सिर्फ इनकाउंटर ही क्यों या कहे आखिरकार ये पनपते ही क्यों है। ना इन्हें मौत का खोफ है, ना कानून का । बस आम लोगो में अपनी खोफ पैदा कर लोगों पर जुर्म ढा रहे है। कोई आवाज उठाने वाला नही, कोई उठाये तो कानून सुनता नही। ये कैसा राज है यँहा कौन सा कानून है । जंहा जुर्म को इतना राजनीतिक संरक्षण की उसके सामने हर कोई बौना हो चला है। आज 8 पुलिस वालों की गोली मारकर हत्या नही हुई होती तो शायद कानून जागता भी नही। 2001 से 2020 का समय कम नही होता 19 साल तक जुर्म की कहानी लिखता रहा विकास दुबे । इन 19 सालों में इस हत्यारे ने न जाने क्या क्या पाप नही किये ।
आम निर्दोष लोगो पर क्या क्या अत्याचार नही किया। लेकिन कार्यवाही हुई तो सिर्फ नाम की और वो आज़ाद पंछी की तरह बेखोफ घूमता रहा ? पुलिस व प्रशासन से लेकर राजनीति के दुरंधर लोगो के साथ ऐसे ही विकास दुबे नही उठता बैठता था। घर मे रात को छापे के पहले उसे खबर लग जाना ये बता रहा है कि प्रशासन में उसकी पकड़ कैसी थी। हमारा सिस्टम कैसा हो चला है। अगर सिस्टम ऐसा न होता तो ऐसे अपराधी कभी पनप पाते ? अगर धोखे से पनप भी गये तो 19 साल तक ऐसे रह पाते ? विकास दुबे जैसे हत्यारा इतना बेखोफ की गिरफ्तारी में भी चिल्ला चिल्ला कर बोल रहा है
कि –
हाँ मैं ही हूँ विकास दुबे कानपुर वाला….!!