राजस्थान : बहुजन हितैषी सरकार को क्यों गिराना चाहती है भाजपा ?

Global36 गढ़ के संवाददाता नीलकांत खटकर।।

 

 

 

 

 

न्यूज डेस्क – राजस्थान में सियासी उठापटक जारी है। निशाने पर अशोक गहलोत की सरकार है जिसने हाल ही में दलितों, पिछड़ों व आदिवासियों के पक्ष में क्रांतिकारी फैसले लिये हैं। इन फैसलों में से एक अहम फैसला है मृत्योपरांत होने वाले श्राद्ध भोजों पर पूर्णत: प्रतिबंध लगाने का साहसिक निर्णय। सवाल यह है कि क्या भाजपा, जिसका केंद्रीय एजेंडा हिन्दुत्व है, वह गहलोत सरकार के इन फैसलों से इस कदर घबरा गयी है कि उसने लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार को अपदस्थ करने का फैसला किया है?हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब भाजपा चुनी हुई सरकारों को गिरा रही है। इससे पहले भी गोवा, कर्नाटक व मध्यप्रदेश में जिस तरह भाजपा ने सत्ता पर कब्जा जमाया है उसी तरह वह राजस्थान की गहलोत सरकार को अपदस्थ करके अपनी सरकार बनाना चाहती है, जबकि संख्या बल के लिहाज से भाजपा के पास महज 75 विधायकों का आंकड़ा ही है। लेकिन खरीद-फ़रोख्त और ब्लैकमेलिंग के हथकंडे अपना कर वह लोकतंत्र को शर्मसार करने पर तुली हुई दिख रही है।आखिर भाजपा ऐसा क्यों करना चाहती है भाजपा और सत्तारूढ़ दल के मुखिया क्यों बन गये थे भाजपा के हाथ की कठपुतली? क्या यह सिर्फ़ राजनीतिक वर्चस्व के लिए नूराकुश्ती अथवा पावर गेम मात्र है या इसके पीछे कोई दूरगामी सोची-समझी साज़िश है? राजस्थान के राजनीतिक हालात को लेकर लोग यह ज़रूर जानने को उत्सुक हैं कि अचानक ऐसा क्या हो गया कि सत्तारूढ़ दल का प्रदेश अध्यक्ष व उप-मुख्यमंत्री रहा व्यक्ति ही बग़ावत पर उतर आया है? मुख्यमंत्री अशोक़ गहलोत व उप-मुख्यमंत्री सचिन पायलट के मध्य सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था। दोनों के रिश्ते काफ़ी तल्ख़ थे। यह कोई छिपी बात तो है नहीं। सारा प्रदेश इस बात को अच्छे से जानता है। तब क्या यह माना जाए कि यह सारा घटनाक्रम राजस्थान पुलिस के स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप (एसओजी) द्वारा दर्ज किये गए मुकदमे की प्रतिक्रिया में हुआ है,या इसे एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया गया है? गहलोत-पायलट के रिश्ते पहले से रहे हैं तल्ख विधानसभा चुनाव के पश्चात मुख्यमंत्री पद को लेकर चली रस्साकशी के समय से ही मतभेद तो सामने आ ही चुके थे, जो बाद में सरकार के निर्णयों की आलोचना के रूप में भी यदाकदा जाहिर होते ही रहे है। परंतु, हाल ही में संपन्न राज्यसभा चुनावों के लिए उम्मीदवारों के चयन तथा वोटिंग के वक़्त ख़रीद-फ़रोख़्त के आरोप-प्रत्यारोप के समय आपसी लड़ाई सतह पर साफ़ दिखाई पड़ने लगी। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले युवा नेता नीरज डांगी के पक्ष में थे जबकि सचिन पायलट उनके नाम पर सहमत नहीं थे, ऐसा कहा गया।

 

आज जो कुछ भी नजर आ रहा है, उसकी पटकथा राज्यसभा चुनाव के पूर्व ही लिख दी गई थी। भाजपा लम्बे समय से कांग्रेस के युवा नेता और प्रदेश अध्यक्ष रहे सचिन पायलट पर डोरे डाल रही थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रकरण के समय भी ऐसी ही बातें उठीं ,जो कि अब साबित हो चुकी हैं।

 

सचिन पायलट व उनके साथियों द्वारा अंदर खाने भाजपा से सांठ-गांठ सामने आ चुकी है। इधर गहलोत ने अपने राजनीतिक कौशल से सरकार बचाने के लिए आवश्यक संख्याबल जुटा लिया है और अपनी पसंद के लोग वे संगठन में ले आये हैं. साथ ही उन्होंने आलाकमान के सामने यह सिद्ध भी कर दिया है कि सचिन पायलट पार्टी के साथ गद्दारी कर रहे थे और अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने के खेल में जुटे हुए थे। अंततः सचिन पायलट की प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री पद से विदाई हो गई और पिछड़े वर्ग के गोविन्द सिंह डोटासरा को पार्टी की कमान सौंप दी गई। फ़िलहाल राजस्थान में गहलोत सरकार बच गई है, ऐसा प्रतीत हो रहा है।

 

भाजपा इतनी बेसब्र क्यों?
परंतु, भाजपा ने यह खेल क्यों खेला? राजनीतिक अस्थिरता के लिए भाजपा इतनी बेचैन क्यों नजर आ रही है? क्या इसके पीछे कोई वैचारिक कारण और सरकार के नीतिगत निर्णयों से बन रहे नए राजनीतिक-सामाजिक समीकरण है ? कई राजनीतिक प्रेक्षक अब मान रहे हैं कि अशोक़ गहलोत, जो कि स्वयं पिछड़े वर्ग से आते हैं, अपने इस कार्यकाल में कई साहसिक बहुजन हितैषी फ़ैसले ले रहे हैं और ऐसी नीतियां, क़ानून और योजनाएं बना रहे हैं, जिनसे सवर्ण वर्चस्व को चुनौती मिलने की संभावनायें निर्मित हो रही है। संभवतः यह भी एक बड़ा कारण है जिसके चलते भाजपा जैसी मनुवादी, दक्षिणपंथी सोच की पार्टी गहलोत को अपदस्थ करने के लिए जी जान से लग गई।
एक संभावना यह भी है कि हाल ही में सरकार ने कई क्रांतिकारी निर्णय लिये हैं, जिनमें मृत्युभोज पर पूर्णत: पाबंदी जैसा कदम भी है, जो मनुवादियों को खुली चुनौती देने वाला है। इसकी दक्षिणपंथी ख़ेमे ने कटु आलोचना की है। संघ विचारधारा के लोगों ने सोशल मीडिया पर इसकी निंदा करते हुए यहां तक लिखा कि गहलोत सरकार ने राजस्थान में श्राद्ध भोज पर चर्च के दबाव में प्रतिबंध लगाया गया है। हालांकि इस तरह के बयानों का बहुजन वर्ग के युवाओं ने जमकर विरोध किया और गहलोत के निर्णय की सराहना की है।एक और क्रन्तिकारी फैसला लेते हुए राजस्थान सरकार ने फुले दम्पत्ति के नाम से विद्यालय खोलने, उनकी तस्वीरें लगाने और सावित्री बाई फुले के जन्मदिन को शिक्षिका दिवस के रूप में मनाने का आदेश जारी किया है। सरकार के इस फैसले की चारों तरफ़ वाहवाही हो रही है। इस निर्णय की ओबीसी की जातियों में काफ़ी प्रशंसा हुई है।इतना ही नहीं, हाल ही में गहलोत सरकार ने राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में डॉ. जे. पी. यादव की नियुक्ति करके भी पिछड़े वर्ग को संदेश देने की कोशिश की है कि सरकार को पिछड़ों की भागीदारी की परवाह है। यादव राजस्थान विश्वविद्यालय में ही पढ़े हैं और विगत 33 सालों से अध्यापन कर रहे हैं। उनकी नियुक्ति ने प्रदेश के बहुजन समाज को बड़ा राजनीतिक संदेश दिया है। शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण इदारों पर पिछड़ों की आमद पर भी मनुवादी ताकतों की भौहें टेढ़ी होती नजर आई हैं।इसके अलावा क्रांतिकारी बदलाव लाने वाला एक और फैसला यह है कि राजस्थान सरकार ने दलितों आदिवासियों की भूमि पर अवैध क़ब्ज़े हटवाने के लिए राजस्थानी काश्तकारी अधिनियम 1955 की धारा 83 में आंशिक बदलाव करके तहसीलदारों को अधिकृत कर दिया है और इस हेतु कोर्ट फ़ीस महज़ दो रुपए तय की है। इससे दलित, पिछड़े, आदिवासी, घुमंतू जातियों-जनजातियों के लोगों को राहत मिलेगी और उन पर चोट होगी जो जमीन पर कब्जा जमाए बैठे हैं।

 

इसके अलावा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने गत 19 जून, 2020 को अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर घोषणा की कि सरकार, राज्य में अनुसूचित जाति व जनजाति की जनसंख्या के आधार पर बजट का आवंटन व व्यय हेतु क़ानून बनाने जा रही है, जो कि बेहद महत्वपूर्ण फ़ैसला है। इससे 18 प्रतिशत दलित और 13 प्रतिशत आदिवासी आबादी को फ़ायदा होने वाला है।वहीं मुख्यमंत्री गहलोत ने स्वच्छताकर्मियों के सीवरेज में उतरने पर भी पाबंदी लगा कर जबरदस्त सन्देश दिया है। यह सफ़ाई कर्मचारी समुदाय के लिए बड़ा तोहफ़ा है। इस निर्णय की भी भूरि-भूरि प्रशंसा हुई है। कोरोना वॉरियर्स की सूची में सबसे पहले सफाईकर्मियों को शामिल करते हुए उनकी मौत होने पर 50 लाख रुपए देने की घोषणा भी गहलोत ने ही की थी।इस कोविड संक्रमण काल में गहलोत सरकार ने दलित ,आदिवासी व घुमंतू समुदाय के ग़रीबों के लिए जिस तरह से राहत सामग्री पहुँचाने के बंदोबस्त हुए हैं, उससे भी गहलोत सरकार की छवि बहुजन हितैषी सरकार के रूप के मज़बूत होती जा रही है।इस प्रकार गहलोत इस कार्यकाल के एससी, एसटी और ओबीसी के हितकारी निर्णय लेने में सक्रियता दिखाई हैं। वहीं मृत्यु भोज रोकने और लॉकडाउन के दौरान मंदिरों व धार्मिक गतिविधियों को पूरी तरह से रोक दिये जाने से भी मनुवादी ताक़तें बहुत असहज महसूस करने लगी हैं। इसलिए भी वे गहलोत सरकार की जल्दी से जल्दी विदाई को इच्छुक दिखाई दे रहे हैं।

 

गौरतलब है कि पिछले वर्ष के बजट में गहलोत सरकार द्वारा प्रत्येक ब्लॉक मुख्यालय पर दस लाख रुपए की लागत से आंबेडकर भवनों के निर्माण का निर्णय लिया गया है और अब सरकारी पुस्तकालयों के बहुजन महापुरुषों के साहित्य की ख़रीद की जा रही है। ये सभी कदम अशोक़ गहलोत को दलित, पिछड़े वर्ग का बड़ा चेहरा बना रहे हैं और राजनीति में सवर्ण वर्चस्व को भी बड़ी चुनौती दे रहे है। अभी भी निशाने पर गहलोत और उनकी सरकार बहरहाल कहा जा सकता है कि इन सबसे संघ-भाजपा सदमे की स्थिति में है। वे नहीं चाहते हैं कि अशोक़ गहलोत जैसा पिछड़े वर्ग का व्यक्ति राष्ट्रीय नेता के रूप मज़बूत होकर उभरे, इसलिये भी राज्य सरकार को अस्थिर करना ज़रूरी हो गया था। मगर गहलोत ने अपने नीति कौशल व राजनीतिक सूझ-बूझ से अपने विरोधियों और भाजपा को पटखनी दे दी है, लेकिन भाजपा और उसके हाथों की कठपुतली बन चुके कांग्रेस के कतिपय विधायक मिलकर राजस्थान की बहुजन हितैषी सरकार को गिराने पर अभी भी आमादा हैं और इस षड्यंत्र को केंद्र सरकार का पूरा समर्थन प्राप्त है। राजस्थान में चल रहा पोलिटिकल ड्रामा यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि संघ भाजपा जैसी ताकतें कभी भी पिछड़े वर्ग के नेतृत्व का लोकप्रिय होना अथवा राष्ट्रीय स्तर पर उभर जाना बर्दाश्त नहीं कर सकती हैं और बहुजन हितैषी नीतियों के निर्माण को तो वे कभी भी सहन नहीं कर सकती हैं, चाहे उसके लिए लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी हुई सरकारें ही क्यों न गिरानी पड़ जाय।

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